भविष्य में काफिरों और अविश्वासियों की सजा कैसे हमेश्गी है, यह धार्मिक विद्वानों के बीच चर्चा के विषयों में से एक है। यह मुद्दा और अधिक प्रमुख हो जाता है जब हम परमेश्वर की व्यापक दया के अर्थ पर ध्यान देते हैं और दोनों को मिलाना थोड़ा कठिन हो जाता है।
अविश्वासियों की हमेशा हमेशा की सजा का प्रश्न सूरह हमद की व्याख्या में और विशेष रूप से रहमान और रहीम के मद्दे नज़र ईश्वर की दया के अर्थ को समझने में है। यदि ईश्वर की दया में सभी सेवक शामिल हैं, तो कुरान की आयतों के आधार पर कुछ अविश्वासियों की हमेशा की सजा को कैसे उचित ठहराया जा सकता है।
कुछ लोगों ने इस दंड को सही ठहराने के लिए अविश्वासियों के इरादे का सहारा लिया है, इस दावे के अनुसार चूंकि उनका पाप में जारी रहने का इरादा था, इसलिए सजा भी इस इरादे के अनुपात में जारी रहती है। हालाँकि, केवल नीयत और इरादे के अनुसार सजा और आज़ाब देना शरीयत के खिलाफ है।
इसे सही ठहराने के लिए, कुछ लोगों ने "خلود: खुलूद" (एक निश्चित स्थान पर स्थायी रूप से बसना) की शाब्दिक व्याख्या की है और इसे लंबे समय तक चलने का अर्थ माना है, क्योंकि कुछ पाप, जैसे कि जानबूझकर और मुसलसल वाला कुफ़्र, बड़े पाप हैं और उसकी सज़ा लंबी सज़ा है। हालाँकि, यह उसूले फ़ीक़ह के मेल नहीं खाती है। दूसरी ओर, कुछ ने पवित्र कुरान की आयतों के आधार पर हमेश्गी को ईश्वर की इच्छा पर सशर्त बना दिया है; यानी जब तक भगवान चाहे तब तक वे अज़ाब भुगतेंगे।
दूसरी ओर, व्याख्या में, उसूलों पर भरोसा करना चाहिए और शाखाओं को नजरअंदाज करना चाहिए। कुरान की आयतों की व्याख्या में महत्वपूर्ण उसूल यह है कि ईश्वर जालिम नहीं है, और इस तथ्य पर भी ध्यान होना चाहिए कि विश्व व्यवस्था कार्य-कारण के उसूल का पालन करती है; और इन दोनों उसूलों के अनुसार हमेश्गी अज़ाब को समझना चाहिए, लेकिन क्या कुफ़्र जैसा पाप हमेश्गी अज़ाब की ओर ले जाता है और क्या यह भगवान के जालिम होने के अनुरूप है या नहीं?
यह हमारी समझ से परे हो सकता है। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण कारक पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ख़ुलूद यानी हमेश्गी के अर्थ की हमारी समझ एक अस्थायी समझ है, क्योंकि हम समय से बंधे प्राणी हैं; पर आख़ेरत में हम जीव काल से बंधे हुए हैं या उससे परे?
यदि हम समय से परे होंगे और ख़ूलूद भी समय की बात नहीं है, तो हमें वर्तमान स्थिति में इसकी सही समझ नहीं हो सकती है। जिस तरह हमें मृत्यु के बाद की सजा के अर्थ की सही समझ नहीं है, कि वह शारीरिक होगा या आध्यात्मिक। लेकिन इसे सही ढंग से न समझने का मतलब यह नहीं है कि उसके होने में हम शक करने लगें। दूसरे शब्दों में, जब हमारी समझ की बात आती है, तो हमें इस समझ की ज़ाती सीमाओं पर ध्यान देना चाहिए, लेकिन इस समझ में सीमाओं का होना और फिर नतीजे में किसी मामले की सही समझ की कमी का मतलब यह नहीं है कि उसका वजूद ही नहीं है।
इसलिए, यह कहा जा सकता है कि आख़ेरत के आज़ाब का मुद्दा जाहिर में परमेश्वर की दया से मेल नहीं खाता है। लेकिन इस को सही ठहराने में हमारी अक्षमता का अर्थ ईश्वर के रहमान और रहीम होने पर शक संदेह करना नहीं होना चाहिए। और हमें इस को कार्य-कारण के उसूलों और ईश्वर की गैर-ज़ालिम होने के ढांचे के भीतर समझने की कोशिश करनी चाहिए। ज़ाहिरी असंगति और उसका समाधान न कर पाने का अर्थ यह नहीं है कि ये दोनों वास्तव में असंगत हैं। इसलिए इस बात पर जोर दिया गया है कि ऐसे कठिन मुद्दों का सामना करते समय हमें सिद्धांतों पर भरोसा करना चाहिए और अपनी समझ की सीमाओं पर ध्यान देना चाहिए।
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