IKNA रिपोर्टर के अनुसार, जर्मन इस्लामिक विद्वान और ईरानी शायर मोलवी की इस्पेशलिस्ट ऐनी मैरी शिमेल और डॉ. हसन लाहूती की स्मृति में एक प्रोग्राम, शाहरजाद थिएटर परिसर में 25 नवंबर की रात आयोजित किया गया था।
फ़लसफ़े की प्रोफेसर और ऐनी मैरी शिमेल के छात्रों में से एक, शाहीन अवनी ने इस बैठक में भाषण दिया, और आप उनके भाषण का एक अंश नीचे पढ़ सकते हैं;
जब ऐनी-मैरी शिमेल से पूछा गया कि प्राच्यवादियों और विशेष रूप से इस्लामवादियों के बीच, आप इस्लाम से इतनी आकर्षित क्यों हैं और आपके अंदर इतना प्यार कैसे और कब विकसित हुआ? तो वह इस प्रश्न के उत्तर में रहती कि इस्लाम को पढ़ते पढ़ते, मुझे किसी चीज़ से प्यार हो गया और उसके दौरान मेरा विचार का विकास और इस्लाम के प्रति प्यार और लगाव का सफर बहुत छोटा है।
शिमेल का कहना है कि इस्लाम में किसी भी दिशा में आगे बढ़ने के लिए एक शिक्षक और उस्ताद की आवश्यकता होती है, और वह पहला व्यक्ति जिसने मेरे लिए विदेशी और दुसरी संस्कृति की दुनिया में प्रवेश करने का रास्ता खोला, और अन्य विचारों और साहित्यिक राय को जानने के लिए प्यार का पौधा मेरी जवानी में मेरे दिल के अंदर लगाया, वह मेरे पिता थे।
शिमेल इस्लाम, फ़ारसी साहित्य, रूमी और शम्स से क्यों आकर्षित थीं? वह खुद कहती हैं कि मेरे माता-पिता शायरी और साहित्य में रुचि रखते थे और मैं उनकी इकलौती संतान थी। मैंने कविता पढ़ी और याद कर ली। हम अपने पिता के साथ महान क्लासिकल सूफ़ीज़्म के बारे में चर्चा करते थे। इस्लाम के प्रति मेरा प्रेम मुझे अपने पिता के परिवार से विरासत में मिला। मेरी माँ और पिताजी की भाषा कविता की भाषा है।
क्या मैरी शिमेल राजनीतिक थीं?
एक और सवाल यह है कि क्या शिमेल राजनीतिक थीं या नहीं। ईरान में उनकी रुचि के कारण और विशेष रूप से उस अवधि के दौरान जब पश्चिम में ईरानोफोबिया प्रचलित था, शिमेल ने पश्चिमी लोगों के इस विचार का काफी हद तक सामना किया। एक और चीज़ जो शिमेल के कार्यों में देखी जा सकती है वह है इस्लाम के प्रिय पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वआलेही वसल्लम) के लिए उनका प्यार और सम्मान, और उन्होंने इस बारे में एक किताब भी लिखी है।
साथ ही उनका कहना है कि यदि ज्ञान है तो पूर्व और पश्चिम अलग नहीं होते हैं, लेकिन यदि अज्ञान है तो वे अलग हो जाते हैं। उनका कहना है कि आयत «رَبُّ الْمَشْرِقَیْنِ وَ رَبُّ الْمَغْرِبَیْنِ» की विषय-वस्तु जिसका कुरान में कई स्थानों पर उल्लेख किया गया है, भी यही मसला है। अत: उनका बयान और तरीक़ा यह है कि पश्चिमी लोगों को पूर्वी लोगों की मान्यताओं और सोच को पूरी तरह से विदेशी नहीं मानना चाहिए और न ही पूर्वी लोगों को पश्चिमी लोगों को अपना कट्टर शत्रु मानना चाहिए।
इस तरह के दृष्टिकोण का एक उदाहरण गोएथे जैसे प्राच्यवादी हैं, और "पश्चिमी-पूर्वी" «غربی - شرقی» दीवान उन्हीं का है।